संघ और भाजपा में टकराव क्यों ?

संघ और भाजपा के संबंध 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) भारतीय राजनीति और समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दो प्रमुख संगठन हैं । भारतीय जनता पार्टी और RSS के कार्य पद्धति में काफी असमानताएं पाई जाती हैं परंतु दोनों संगठनों का उद्देश्य एक ही है दोनों संगठन भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में देखते हैं, विचारधाराओं में इसी समानता के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भारतीय जनता पार्टी की जननी संगठन माना जाता है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर कार्य करती है जबकि भारतीय जनता पार्टी राजनीतिक स्तर पर अपने उद्देश्यों को पूरा करने की कोशिश करती है, जिसका समर्थन हर प्रकार से राष्ट्रीय सेवक संघ के द्वारा किया जाता है । कार्य पद्धति में अंतर होने के कारण दोनों संगठनों में समय-समय पर मतभेद देखने को भी मिलते रहे है ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( RSS ) की स्थापना 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर में की गई थी। यह संगठन हिंदू संस्कृति और राष्ट्रीयता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाया गया था। RSS का मुख्य उद्देश्य भारत में हिंदू समाज को संगठित और सशक्त बनाना है। इसके कार्यकर्ता, जिन्हें स्वयंसेवक कहा जाता है, विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल होते हैं। RSS की विचारधारा हिंदुत्व पर आधारित है, जिसे सबसे पहले सावरकर ने प्रस्तुत किया था।

भारतीय जनता पार्टी ( BJP ) की स्थापना 1980 में भारतीय जनसंघ के उत्तराधिकारी के रूप में की गई थी। भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा की गई थी। भाजपा का उदय आरएसएस के सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन के राजनीतिक अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है। भाजपा की विचारधारा भी हिंदुत्व पर आधारित है और इसे राष्ट्रवादी पार्टी माना जाता है।

आरएसएस और भाजपा का संबंध बहुत गहरा और व्यापक है। आरएसएस भाजपा के राजनीतिक मार्गदर्शन का एक प्रमुख स्रोत रहा है। भाजपा के कई नेता और कार्यकर्ता आरएसएस से आते हैं, और आरएसएस का प्रशिक्षण भाजपा नेताओं को वैचारिक और नैतिक समर्थन प्रदान करता है।

वैचारिक समानता:

आरएसएस और भाजपा दोनों हिंदुत्व की विचारधारा में विश्वास करते हैं। यह विचारधारा हिंदू धर्म और संस्कृति के संरक्षण और प्रसार पर जोर देती है। दोनों संगठन भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में देखते हैं, जहां हिंदू मूल्यों और संस्कारों का संरक्षण किया जा सके।

संगठनात्मक संबंध:

 आरएसएस का एक अनौपचारिक लेकिन मजबूत नेटवर्क है, जिसका उपयोग भाजपा अपने राजनीतिक अभियानों और गतिविधियों में करती है। आरएसएस के स्वयंसेवक भाजपा के विभिन्न चुनाव अभियानों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

नेतृत्व:

 भाजपा के कई प्रमुख नेता, जैसे कि नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जेपी नड्डा आरएसएस के स्वयंसेवक रह चुके हैं। इन नेताओं ने आरएसएस से अपनी प्रारंभिक शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त किया है, जो उनकी राजनीतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

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रणनीतिक सहयोग:

 आरएसएस और भाजपा के बीच एक रणनीतिक सहयोग है। आरएसएस भाजपा के राजनीतिक दृष्टिकोण और नीतियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके अतिरिक्त, आरएसएस के विभिन्न संगठनों जैसे कि विश्व हिंदू परिषद (विहिप), अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी), और बजरंग दल भी भाजपा के राजनीतिक एजेंडा को समर्थन प्रदान करते हैं।

संघर्ष और सहयोग : 

हालांकि आरएसएस और भाजपा का संबंध घनिष्ठ है, लेकिन इन दोनों के बीच कुछ मुद्दों पर मतभेद भी रहे हैं।

स्वतंत्रता:

 आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में अपने स्वतंत्र अस्तित्व पर जोर देता है, जबकि भाजपा एक राजनीतिक पार्टी है। यह भिन्नता कई बार दोनों संगठनों के बीच संघर्ष का कारण बनती है, विशेषकर जब राजनीतिक रणनीतियों और सिद्धांतों पर मतभेद होते हैं।

आंतरिक मतभेद:

 भाजपा के कुछ नेता आरएसएस के कुछ नीतियों और कार्यप्रणालियों से असहमत हो सकते हैं। यह असहमति विशेषकर तब दिखाई देती है जब राजनीतिक लाभ के लिए आरएसएस के सिद्धांतों को लागू करने में चुनौतियां आती हैं।

ऐतिहासिक घटनाक्रम

जनसंघ का गठन:

 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई, जो बाद में भाजपा का पूर्ववर्ती संगठन बना। जनसंघ के अधिकांश नेता और कार्यकर्ता आरएसएस से जुड़े हुए थे। जनसंघ का उद्देश्य हिंदू राष्ट्रवाद को राजनीतिक मंच पर लाना था।

आपातकाल और जनता पार्टी:

 1975-77 के आपातकाल के दौरान, आरएसएस ने आपातकाल के विरोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1977 में, आपातकाल के बाद, जनसंघ ने अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर जनता पार्टी का गठन किया। यह गठबंधन 1977 के चुनाव में जीता, लेकिन आंतरिक मतभेदों के कारण 1980 में यह टूट गया, और भाजपा का गठन हुआ।

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राम जन्मभूमि आंदोलन:

 1980 और 1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन ने भाजपा को राष्ट्रीय राजनीति में प्रमुखता दिलाई। आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों ने इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई, जिससे भाजपा को व्यापक जनसमर्थन मिला।

सत्ता में आगमन:

 1998 में, भाजपा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनाई। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, और इस दौरान आरएसएस का भाजपा की नीतियों और निर्णयों पर प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा गया।

नीतिगत प्रभाव:

 आरएसएस और भाजपा के संबंधों का प्रभाव भाजपा की नीतियों और निर्णयों में देखा जा सकता है:

 शिक्षा और संस्कृति:

 आरएसएस का भाजपा की शिक्षा और सांस्कृतिक नीतियों पर गहरा प्रभाव है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, भारतीय इतिहास और संस्कृति का पुनर्मूल्यांकन, और संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार में आरएसएस की विचारधारा का योगदान महत्वपूर्ण रहा है।

सामाजिक नीतियाँ:

 भाजपा की सामाजिक नीतियों में आरएसएस के सिद्धांतों का प्रभाव देखा जा सकता है। गाय संरक्षण, धार्मिक आयोजनों का समर्थन, और हिंदू त्योहारों और संस्कृति का संवर्धन भाजपा की नीतियों का हिस्सा हैं।

आर्थिक नीतियाँ:

 आर्थिक नीतियों में भी आरएसएस का प्रभाव देखा जा सकता है। स्वदेशी जागरण मंच जैसे आरएसएस से जुड़े संगठन आत्मनिर्भरता और स्वदेशी उद्योगों के समर्थन में सक्रिय रहे हैं, जो भाजपा की आर्थिक नीतियों में प्रतिबिंबित होता है।सामाजिक योगदानआरएसएस और भाजपा का संबंध भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार के सामाजिक योगदानों के माध्यम से प्रकट होता है।

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सेवा कार्य:

 आरएसएस के सेवा कार्य, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, और राहत कार्य, भाजपा की सामाजिक नीति में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। संघ शिक्षा और सामाजिक सेवा के माध्यम से समाज में सुधार के लिए काम करता है।

सामाजिक समरसता:

 आरएसएस समाज में सामाजिक समरसता और एकता को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करता है। ये कार्यक्रम भाजपा की राजनीति में सामाजिक समरसता की अवधारणा को मजबूत बनाते हैं।

महिला और युवा सशक्तिकरण:

 आरएसएस के विभिन्न संगठनों, जैसे कि राष्ट्र सेविका समिति और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, ने महिला और युवा सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ये संगठन भाजपा के महिला और युवा नीतियों में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं।

संघ और भाजपा के वर्तमान संबंध :

भारतीय जनता पार्टी का अपना दो कार्यकाल पूर्ण बहुमत के साथ पूरा करने के बाद उसका निरंकुश हो जाना स्वाभाविक था । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आत्ममुग्धता 2024 में अपने चरम पर थी जिसमें उन्होंने स्वयं को ईश्वर का अवतार घोषित कर दिया ऐसे में नरेंद्र मोदी स्वयं से बड़ा ना पार्टी को समझा, ना पार्टी में किसी अन्य व्यक्ति को और ना ही अपनी जननी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग की आवश्यकता समझी, प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी अपने आप को इतना बड़ा महसूस करने लगे थी की लोकसभा चुनाव 2024 के चौथे चरण के बाद भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा चुनावी मंच से यह घोषणा करते हैं कि भारतीय जनता पार्टी को अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आवश्यकता नहीं है वह अपने बल पर ही चुनाव लड़ने और जितने में पूरी तरह से सक्षम है । जेपी नड्डा के इस बयान के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक लोकसभा चुनाव मे भाजपा का उस तरह सहयोग नहीं करते हैं जैसा कि विगत चुनाव में करते रहे हैं जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता पार्टी अपने बल पर पूर्ण बहुमत से भी बहुत दूर रही । 

चुनाव परिणाम के बाद संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को मंच से नरेंद्र मोदी को राजनीतिक आदर्श की नसीहत देनी पड़ी । जिस तरीके से भाजपा और संघ के द्वारा एक दूसरे के लिए बयानबाजी की जा रही है इससे एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट होती है कि इस समय भाजपा और संघ के बीच संबंध ठीक नहीं है दोनों के संबंधों में मनमुटाव की स्थिति है शायद यही कारण है की संघ की समीक्षात्मक बैठक केरल में बुलाया गया है, इस बैठक में लोकसभा चुनाव 2024 की भी समीक्षा होगी और मोदी की भूमिका पर भी समीक्षा होगी । शायद संघ को अब मोदी के विकल्प की तलाश है ।

निष्कर्ष :

राजनीतिक शक्ति जब किसी संगठन में होती है तो संगठन का वैचारिक, सामाजिक और संगठनात्मक विकास होता है पर यही राजनीतिक शक्ति जब किसी एक व्यक्ति में निहित हो जाती है तो संगठन अपने पतन की ओर अग्रसर हो जाता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय जनता पार्टी को इसी राजनीतिक शक्ति के रूप में देखा है परंतु जब यह राजनीतिक शक्ति सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक सीमित हो गई तो ऐसे में संगठनात्मक हानि होना स्वाभाविक था, यह हानि दोनों संगठनों को हुआ जिसे आप सब ने लोकसभा चुनाव 2024 में देखा । यदि समय पर संघ ने इस पर विचार नहीं किया तो भविष्य में संघ को अपने अस्तित्व को बचाने पर विचार करना पड़ेगा ।

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