भीमराव अंबेडकर भारतीय राजनीति में भगवान राम के बाद दूसरे ऐसे महान व्यक्ति रहे हैं जिसका भारतीय राजनीति पर इतना ज्यादा प्रभाव रहा । अब से कुछ दिन पहले अधिकतर लोग इनका नाम भीमराव अंबेडकर, बाबा साहब के नाम से ही जानते थे लेकिन कुछ राजनीतिक कारणों की वजह से लोगों को इनका असली नाम पता चला जो कि भीमराव रामजी आंबेडकर है इनके नाम में राम जी लगाया गया जो कि इनके पिता रामजी मालोजी सकपाल से लिया गया अब भारतीय राजनीति में चर्चा का विषय बना हुआ है कितना सही है कितना गलत है यह तो नहीं पता पर इसका इस्तेमाल राजनीति में हो रहा है । राजनीति से हटकर बात करें तो इनका नाम बाबा साहब, बोधिसत्व, भीम, भीमराव, भीमा भी है इन नामों का कोई राजनीतिक फायदा नहीं है तो शायद इनकी चर्चा भी नहीं होती है । अगर इसका कोई राजनीतिक फायदा होता तो इसकी चर्चा भी होती और ज्यादा से ज्यादा लोगों को पता भी होता ।
व्यक्तिगत रूप से बात करें तो बाबा साहब का जन्म ब्रिटिश भारत के मध्य प्रांत जो कि वर्तमान में मध्यप्रदेश में है कि एक सैन्य छावनी महू के अांबडवे गांव में 14 अप्रैल 1891 में एक मराठा महार परिवार में हुआ था । इनके पिता रामजी मालोजी सकपाल तथा माता भीमाबाई की यह 14वीं तथा अंतिम संतान थे इनके पिता रामजी मालोजी सकपाल भारतीय सेना के महू छावनी में सूबेदार थे तथा इनके पूर्वज ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत रहे थे । इनके पिता रामजी सकपाल ने स्कूल में अपने बेटे भीमराव का उपनाम ‘सकपाल' की बजाय ‘आंबडवेकर' लिखवाया था, क्योंकि कोकण प्रांत में लोग अपना उपनाम गांव के नाम से रखते थे, इसलिए आम्बेडकर के आंबडवे गांव से 'आंबडवेकर' उपनाम स्कूल में दर्ज किया। बाद में एक देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आम्बेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, ने उनके नाम से ‘अंबाडवेकर’ हटाकर अपना सरल ‘आम्बेडकर’ उपनाम जोड़ दिया। रामजी आम्बेडकर ने सन 1898 में जिजाबाई से पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ बंबई चले आये। यहाँ आम्बेडकर गवर्न्मेंट हाई स्कूल में, तथाकथिक "अछूत" समाज से संबंधित पहले छात्र बने ।
इनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर नहीं थी 14 बच्चों में हो भी नहीं सकती थी बताया जाता है कि उस समय समाज में अस्पृश्यता छुआछूत जैसी तमाम सामाजिक कुरीतियां मौजूद थीं जिसका सामना यह भी कर रहे थे जिसके कारण इन्हें उचित शिक्षा नहीं मिल पा रही थी इतनी विषम परिस्थिति में भी इन्होंने शिक्षा हासिल की और लगभग 32 डिग्रीयां प्राप्त की इतनी विषम परिस्थितियों में इतनी डिग्रियां कैसे हासिल की यह तो नहीं बताया जा सकता इनके स्वभाव के बारे में सी एस भंडारी ने अपनी किताब 'प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव अंबेडकर' में लिखा है कि "यह बालक भीम बचपन से ही लड़ाकू हठी और निर्भीक स्वभाव का था लोकाचार के सारे नियम उसकी उत्पत्ति के लक्ष्य बिंदु थे चुनौतियों के सामने झुकना उसके स्वभाव में नहीं था ।"
हिंदू धर्म के तमाम कुरीतियों से यह जीवन भर लड़ते रहे यह एक अलग बात है कि उन्हीं कुरीतियों में से एक को दरकिनार करते हुए 15 साल की उम्र में 1906 में 9 साल की रमाबाई से शादी की शायद उस समय यह बाल विवाह के अंतर्गत नहीं आता होगा ।
तमाम सामाजिक प्रताड़ना तथा यातनाओं से जूझते हुए इन्होंने मुंबई यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र तथा राजनीति विज्ञान में डिग्री प्राप्त की तथा 1913 में बड़ोदरा राज्य के शासक सयाजीराव गायकवाड़ द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाकर अध्ययन करने के लिए चयनित हुए जहां से इन्होंने 1916 में पीएचडी की डिग्री हासिल की इन्होंने अपने शोध लेख को अपनी पुस्तक 'इवोल्युशन अॉफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया' के रूप में प्रकाशित किया। हालाँकि उनका पहला लेख "भारत में जाति: उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास" था। अपनी डाक्टरेट की डिग्री लेकर यह 1916 में लंदन चले गये जहाँ उन्होने ग्रेज् इन और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में विधि का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध के लिये अपना नाम दर्ज कराया। लेकिन छात्रवृत्ति की समाप्ति के चलते उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा ।
भारत वापसी के बाद यह बड़ौदा राज्य की सेना में सेना सचिव के पद पर कार्य किया जातिगत भेदभाव के कारण उस पद पर यह बहुत दिनों तक कार्य नहीं कर सके तथा उसके बाद कई अन्य कार्य किए जो कि लगभग असफल रहे । 1920 में कोल्हापुर के शाहू महाराज के सहयोग से यह पुन: लंदन चले गए 1923 में इन्होंने अपना शोध "प्रॉब्लम अॉफ द रुपी" को पूरा किया तथा लंदन विश्वविद्यालय द्वारा इन्हें 'डॉक्टर ऑफ साइंस' की उपाधि दी गई । इस प्रकार इनकी उच्च शिक्षा लगभग पूरा विदेशों में ही हुआ ।
डा.अंबेडकर तमाम डिग्रियों के साथ भारत आये भारत आने के बाद उनकी विचारधारा तो नहीं बदली वह स्वभाव से एक अंग्रेज ही रहे वह सूट बूट पहनते थे हेलीकॉप्टरों में यात्रा करते थे तथा भारतीय दलित समाज का मसीहा बनने का प्रयास कर रहे थे वह भारत के बारे में कितना सोचते थे कितने राष्ट्रभक्त थे यह तो एक चर्चा का विषय है पर हम यह देखते हैं की उनकी अधिकतर सेवाएं अंग्रेजी सरकार के लिए थी । भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथवरो समिति के भारतीय गवाह अंबेडकर को बनाया गया जहां उन्होंने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन एवं आरक्षण की वकालत की । जिस समय भारत आजाद होने के लिए अंग्रेजों से लड़ रहा था तथा भारत की एकमात्र सबसे बड़ी समस्या आजादी थी उस समय यह दलितों की लड़ाई लड़ रहे थे शायद उस समय उन्हें यह पता नहीं था कि अगर भारत आजाद हो जाता है तो दलितों की स्थिति सुधारी जा सकती है लेकिन उन्होंने दलितों की आजादी और दलितों के अधिकारों को प्राथमिकता पर रखा इसके लिए उन्होंने तमाम कार्य भी किए 1920 में मुंबई से साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरुआत की जिसमें उन्होंने हिंदू जाति की कड़ी आलोचना की तथा 20 जुलाई 1924 में मुंबई में इन्होंने बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार करना था । 1927 में उन्होंने बहिष्कृत भारत और रीक्रिश्टेन्ड पत्रिका की शुरूआत की तथा अंग्रेजों द्वारा बनाए गए साइमन कमीशन 1928 में काम करने के लिए नियुक्त किया गया जो इनके पाश्चात्य सोच को प्रमाणित करता है ।
विश्व के सबसे प्राचीन धर्म सनातन धर्म तथा इस धर्म की सबसे मानक पुस्तक मनुस्मृति जो हजारों वर्षों तक महाभारत का संविधान रहा इन हजारों वर्षों में भारत में तमाम ऐसे विद्वान हुए जो शायद अंबेडकर से तो अधिक विद्वान रहे होंगे वह भी मनुस्मृति में कोई कमी नहीं निकाल सके लेकिन डॉ भीमराव अंबेडकर इस सनातन धर्म से तथा मनुस्मृति से इतना कुपित हो चुके थे कि वह 25 दिसंबर 1927 को अपने हजारों अनुयायियों के साथ मनुस्मृति की प्रतियां जला दी उनका मानना था कि मनुस्मृति भारत में वर्ण व्यवस्था की सूत्रधार रही है मुझे नहीं लगता कि उन्होंने कभी मनुस्मृति पढ़ी भी होगी अगर उन्होंने पढ़ा होता तो शायद उन्हें पता होता की मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म है ना की जाति । हमें नहीं पता कि उन्होंने ऐसा क्यों किया पर ऐसा लगता है कि उस समय महात्मा गांधी अछूतों के नायक बने हुए थे और यह बनने का प्रयास कर रहे थे इन्ही कारणों से इन्होने मनुस्मृति को जलाकर अछूतों का नायक बनने का एक राजनीतिक प्रयास किया और शायद उस में सफल भी रहे इस घटना के बाद वह दलितों के नायक तो हो गए ।
महात्मा गांधी अछूतों के वास्तविक हितकर थे वह उन्हें हरि के जन अर्थात हरिजन कह कर पुकारते थे तथा कथाकथित सूट बूट वाले दलित बाबासाहेब की दलितों को लेकर महात्मा गांधी के साथ हमेशा वैचारिक मतभेद बने रहे देश की प्रमुख समस्या आजादी को दरकिनार करते हुए यह तीनों गोलमेज सम्मेलनों में गए तो लेकिन वहां पर उन्होंने स्वराज की बात तो नहीं की वहां उन्होंने दलितों के अधिकारों की दलितों की आजादी और अलग निर्वाचन व्यवस्था की बात की अंग्रेजों को इससे कोई नुकसान नहीं था वह शुरू से ही विभाजन की नीति का अनुसरण करते रहे हैं उन्हें और अच्छा मौका मिला और वह हरिजनों के लिए 1932 में पृथक निर्वाचन की व्यवस्था पर सहमति दे दी महात्मा गांधी के साथ पूरे देश ने इसकी आलोचना की तथा महात्मा गांधी पुणे के यरवदा जेल में आमरण अनशन पर बैठ गए । महात्मा गांधी की हालत खराब हो रही थी जिसके कारण डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के इस फैसले की देश में और आलोचनाएं बढ़ती जा रही थी मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से डॉ भीमराव अंबेडकर तथा उनके सहयोगियों के साथ बैठकर पुणे में एक समझौता हुआ जिस के दबाव में आकर भीमराव अंबेडकर को अपना पृथक निर्वाचन की मांग को वापस लेना पड़ा जिसके बाद महात्मा गांधी ने अपना अनशन तोड़ा लेकिन इससे महात्मा गांधी और अंबेडकर के बीच की वैचारिक मतभेदता कम तो नहीं हुआ वह महात्मा गांधी को ढोंगी दलित प्रेमी कहते रहे वह महात्मा गांधी और कांग्रेस पर दलित प्रेम के ढोंग का आरोप लगाते रहे ।
1936 में इन्होंने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की जो कि 1937 के केंद्रीय विधान सभा चुनाव में 15 सीटें जीती उस समय यह राजनीति में उच्चतम स्तर पर थे तथा देश को यह बताने का प्रयास कर रहे थे कि दलितों के सबसे बड़े मसीहा यही हैं जिसके लिए उन्होंने 1937 में एक पुस्तक लिखी जिसका नाम 'जाति के विनाश' था इस पुस्तक में उन्होंने हिंदू जाति की कड़ी आलोचना की तथा कांग्रेस द्वारा दलितों को हरिजन कह जाने की भी कड़ी निंदा की हिंदू मुस्लिम का जहर मोहम्मद जिन्ना भारत में पहले ही घोल चुके थे जिसके बाद डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की इस तरह की सांप्रदायिक तथा विवादास्पद पुस्तकें भारतीय समाज में हिंदू और हिंदू दलित के बीच में भी जहर घोलने का ही काम कर रहा था दलित समाज हिंदू समाज को अपना दुश्मन समझने लगा अंग्रेज भी यही चाह रहे थे और कहीं ना कहीं यह अंग्रेजो का काम आसान कर रहे थे या यूं कहें उनका सहयोग कर रहे थे इनकी किताब जाति के विनाश के बाद अंग्रेजी हुकूमत में इनकी चर्चाएं बढ़ गई और यह अंग्रेजो के रक्षा सलाहकार समिति और वायसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में नियुक्त किए गए । देश उस समय आजादी के लिए लड़ रहा था देश की जनता हिंदू-मुस्लिम विवादों में जल रही थी ऐसे में 1941 से 1945 के बीच इनकी कई सारी विवादास्पद किताबें प्रकाशित हुई जिसके बाद देश हिंदू मुस्लिम के अलावा हिंदू दलित की आग में भी जलने लगा इनका उद्देश्य देश की आजादी कितनी थी यह तो वही बता सकते थे पर इनकी लोकप्रियता तो बढ़ रही थी 1941 से 1945 के बीच आने वाली इनकी सबसे महत्वपूर्ण विवादास्पद पुस्तक "थॉट्स ऑन पाकिस्तान" रहा जिस पुस्तक में इन्होंने अप्रत्यक्ष रुप से जिन्ना के पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया उनकी दूसरी पुस्तक "वॉट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल" भी इसी समय प्रकाशित हुई इस पुस्तक में उन्होंने गांधी के अछूत प्रेमी होने को ढोंग कहा । इस पुस्तक की सफलता के बाद इनकी तीसरी पुस्तक "हू वर द शुद्राज़" प्रकाशित हुई इस पुस्तक में इन्होंने हिंदू जाति व्यवस्था में शूद्रों के अस्तित्व में आने की व्याख्या दी इसके अलावा इस्लाम और दक्षिण एशिया की सभ्यता की भी आलोचना की इस पुस्तक को अपार सफलता प्राप्त हुई ।
हजारों लोगों की कुर्बानियों और तमाम जद्दोजहद के बाद आखिरकार 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ और भारत तथा पाकिस्तान दो अलग-अलग देश बनाए गए दोनों देशों के अलग-अलग संविधान सभा का गठन किया गया जिसमें भारत के संविधान सभा में 324 ( अन्त में 299 ) सदस्यों ने मिलकर भारतीय संविधान की रचना की 324 सदस्यों में से एक डॉ भीमराव अंबेडकर भी थे और संविधान रचना का पूरा श्रेय उन्हें दिया गया है राजनीति विज्ञान का छात्र होने के बाद भी हमें आज तक समझ में नहीं आया कि संविधान की रचना संविधान के सभी सदस्यों ने मिलकर करा था या अकेले भीमराव अंबेडकर हमारे हिसाब से संविधान निर्माण में सभी सदस्यों का योगदान था जो संविधान सभा के सदस्य थे किस तरह हम डॉ भीमराव अंबेडकर को संविधान का निर्माता कह देते हैं यह तो यह कहने वाले राजनेता ही बता सकते हैं संविधान का निर्माता बनने के बाद और देश की आजादी में इतना बड़ा योगदान देने के बाद उनकी लोकप्रियता इस तरह बढ़ गई थी कि जब 1951 में देश का पहला आम चुनाव हुआ तो यह अपने ही चुनाव क्षेत्र से चुनाव हार गए लोगों में इनकी लोकप्रियता कितनी थी इस बात से पता चलता है ।
जब अपने अथक प्रयासों के बाद यह हजारों वर्षों से चली आ रही सनातन धर्म की परंपरा और प्रथाओं को नहीं बदल सके तब इन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर शहर में खुद और अपने समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक धर्मांतरण समारोह का आयोजन किया। जहाँ डॉ॰ आम्बेडकर ने अपनी पत्नी सविता एवं कुछ सहयोगियों के साथ भिक्षु महास्थवीर चंद्रमणी द्वारा पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। जिसके बाद 5 लाख लोगों को बौद्ध धर्म में धर्मांतरण करवाया । अपना पूरा जीवन हिंदू सनातन धर्म की आलोचना करने और दलितों का मसीहा बनने के प्रयास में गुजार दिया और अंततः 6 दिसंबर 1956 को महानिर्वाण को प्राप्त हो गए ।
डॉ भीमराव अंबेडकर एक महान विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, दलित बौद्ध आंदोलन के प्रणेता रहे इन्हें 1990 में भारतरत्न, 1956 में बोधिसत्व, 2004 में कोलंबियन अहेड ऑफ देयर टाइम, तथा 2012 में द मेकर्स ऑफ द यूनिवर्स द ग्रेटेस्ट इंडियन के सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया परंतु इनका संपूर्ण ज्ञान दलित उत्थान, हिंदू धर्म की आलोचना, मनुस्मृति और दलितों के इर्द गिर्द घूमता रहा अगर इन्होंने अपने ज्ञान का सही प्रयोग किया होता तो शायद भारत की स्थिति जितनी खराब आज है उतनी तो नहीं होती कुछ तो अलग होता भारत ।
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हमारे अगले Article "manuvaad vs ambedakar - part 3" में पढे़ ''मनुवाद एवं अम्बेडकर एक निष्कर्ष''
अगर आपने manuvaad vs ambedakar - part 1 नही पढ़ा है तो नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें -
https://rajneetiksameeksha.blogspot.com/2018/06/manuvaad-vs-ambedakar-part-1.html?m=1
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